अगला प्रहर शाम ४ से ७। जिसे संधिकलिन प्रहर कहा जाता है।
यह वक़्त दिन में २ बार आता है, एक सुबह और एक शाम को। संधिकालीन का मतलब है जब २ अलग काल की संधि याने मेल होता है। तो इन समयों में हम रात से सुबह की तरफ़ और सुबह से रात की तरफ़ आते
हैं।
इसी समय में सूर्योदय और सूर्यास्त होता है। दोनो समयों में प्रकृति की शोभा क़रीब एक समान होती है। नभ में सूर्य और आकाश की छटाएँ और उसकी रंग संगति बहुत ही मोहक होती है। ना जाने कितने चित्रकार और कलकारों को इन २ समयों ने प्रभावित, आकर्षित किया है। दुनिया में शायद ही कोई इंसान हो जो इन २ समयों से मोहित ना हुआ हो।
फिर भी सूर्योदय और सूर्यास्त में अंतर है। अंतर है भावनाओं का। मन की अवस्था का। एक ओर सूर्योदय एक नई आशा, नई चेतना का प्रतीक है, वही दूसरी ओर सूर्यास्त उदासी, विरह, विराम का प्रतीक है।
एक चित्रकार के लिए सूर्योदय और सूर्यास्त का यह अंतर चित्रित करना मतलब अपनी कलाकरी की सबसे बड़ी चुनौती या पेंच है।
रागदारी संगीत में यहाँ पर एक बहोत दिलचस्प मोड़ आता है। सूर्योदय के रागों में जहा शुद्ध मध्यम महत्वपूर्ण किरदार निभाता है, वही, सूर्यास्त में तीव्र मध्यम अपना प्रभाव बढ़ाता है। जानने वाली बात ये है की दोनों समय में दोनों स्वरों का प्रयोग होता है, मग़र संगीत में उनका महत्व बदल जाता है। ख़ास तौर पर तीव्र
मध्यम, जो सुबह के सूर्योदय में छिपा छिपा रहता है, सूर्यास्त के बाद ज़्यादा ढीठ, ज़्यादा प्रलंबित होने लगता है। मतलब के कुछ रागों में दोनों मध्यम एक साथ प्रयोग में आते है, लेकिन शाम के समय तीव्र मध्यम, शुद्ध मध्यम के बराबर अपना स्थान बना लेता है। और यही सूर्योदय और सूर्यास्त का भेद है।
यह सिर्फ़ संजोग की बात नहीं हो सकती कि, मध्यम यह स्वर सप्तक के बीचों-बीच आता है, जो सप्तक को बीच से भेदता है, और यही स्वर के २ प्रकार (शुद्ध और तीव्र) सुबह और रात का भेद भी करते हैं।
पूर्व कल्याण ( जो कि पुरिया कल्याण ही है) यह राग सूर्यास्त के विरह और उदासी को प्रतीत करता है। मारवा थाठ का
यह महत्वपूर्ण राग है।
प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से इस राग में बोल अंग का ख़ास तौर पर आधार लिया गया है। बोल अंग से भावनाओं को और अच्छी तरह से प्रतीत किया जा सकता है। आलाप में बोल अंग, और आगे लयकारी में बोल अंग, और फिर तान में भी। यह परिवर्तन इस प्रस्तुति में रखने की कोशिश है।